सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रसकलस.djvu/२५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रस कलस सरिता-सलिल है बहत कल-कल नाहि खिलखिल हॅसि है हुलास-पगो हुलसत । दारिम-फलन दंत-राजि है निकसि लसी खोलि मुँह बिकच-सुमन-बूंद सरसत ।। 'हरिऔध' हेरिव्हेरि राका रजनी को हास मुदित दिगंत है बिकास-भरो बिलसत । हॅसि-हॅसि लोटि-लोटि जात चारु चाँदनी है मजुल मयंक अहै मंद-मंद बिहसत ॥४ सवैया- हाँ मन को, मन ही को मनाइहौँ मानिहाँ बात नहीं बहसी की ना रहिहौँ कस मैं कबौँ काहु के कान न कहीं कही अकसी की । लोक की लाजते काज कहाजव लाज रही हरिऔध' न सी की है हमी होति तो होति हंसी रहे है न हमें परवाह हँसी की। दोहा- सुछवि छई छिति-तल-जयी विजयी छितिप समान । है वसुधा को मोहती सुधामयी मुसुकान ।। ६ विसराए विसरति नहीं मोहति तन - मन - प्रान | जन - मन - नयनन में बसी मनमोहन मुसुकान || [हसन-क्रिया के छः भेद] उत्तम-स्मित और हसित मध्यम-विहसित और उपहसित