पृष्ठ:रसकलस.djvu/२६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रसकलस २० ७-जुगुप्सा किसी अपराध के हृदय में उदय होने, किसी दोष के स्मरण करने, घृणित वस्तु के देखने, छूने और किसी नारकीय जन की बातों के सुनने से जो मनो- विकार उत्पन्न होता है उसे 'ग्लानि' अथवा 'जुगुप्सा' कहते हैं । कवित्त- चेरो हौं न तेरो, तेरो मोलहूँ लियो हौं नाहिं तानिहै हमैं तो हौ तिगूनो तोहि तानिहौं । नीचपन कैहै तो नचैहौं तो कौ नाना नाच सॉच तजे कॉच इतनौ ना सनमानिहौं । 'हरिऔध' वदि-बदि बाद जो बढे है मोसों बादी के समान तोको बद तो बखानिहौं । मान करिहौं ना, मान कीनेहूँ मनैहौं नाहिं गरे मन तेरी मनमानी मैं न मानिहौ ।। १ ।। चित की अवलता अवलता रही तो कबौं कैसे जर सवल सवलता की खनि है। ताव-हीन तन जो वनैगो ताबवारो नाहिं कैसे तो न तमकि तमकवारो तनिहै ।। 'हरिऔध' कैमे जाति धेसिह धरा मैं नाहि मानस-अधीर जो न धीरता में सनिहै। कैसे दूरि हहै वैरि-विविध-विरोध-धूरि ऑसुन की धारा वारि-धारा जो न बनिहै ।। २॥ पच पनि बधिक विपची के करत काम कब परपची है प्रपच में फंसे नहीं । बोरि-बोरिवारि में तगा के सम तोरि-तारि छोरिन्छोरि बधन गये कव कसे नहीं।