पृष्ठ:रसकलस.djvu/२६८

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२१ स्थायी भाव 'हरिऔध' मुख-लाली रखत न लाली रखि कब भाल-अंक के कलंक सो लसे नहीं। धीरता रही न डूवी धरम-धुरीनता है उधरी धरा न पै धरा मे तो धसे नहीं ।।३।। कहा दुख .पावै पछतावै अकुलावै महा नैनन ते नीर कौन काज ढारियत है। स्रौन-से सपूत के नसे ते कौन प्रान राखै याते ऐसी इनकी दसा निहारियत है। 'हरिऔध' भली भई जो पै अंध दियो साप पापिन के ऐसे ही प्रमाद टारियत है। तू तो इतनाहूँ ना विचायो मन एरे मूढ़ तीरथ के तीर काहू तीर मारियत है ।।४।। दोहा- कैसे करुनाकर कहहिं करहु कृपा की कोर । चित आकुल है जात चितवत अपनी ओर ॥५॥ पावन चित मैं वहत है परम पावन सोत । कैसे मुख सौहैं करहिं मुख सौंह नहि होत ।।६।। ८-आश्चर्य विस्मयजनक पदार्थों के देखने, अलौलिक सामथ्र्य-संपन्न विभूतियों के अवलोकन करने अथवा उनका वर्णन सुनने वा उन्हें स्मरण करने से जो मनोविकार उत्पन्न होता है उसका नाम 'आश्चर्य है।