पृष्ठ:रसकलस.djvu/२७८

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83 प्रकटत वनत संचारी भाव पामर है पामरता-पुंज के पयोनिधि ह रहत प्रभाव पुरहूती के। परम अबुध ह बिवुधता दिखावत है कायर ह्र बरत बिरद रजपूती के।। 'हरिऔध' जाति-भाल-अंक है कलंक-भरो धूत है कै वसन रखत अवधूती के । पूत को है पूत पै अपूत-पाग मैं है पगो। सपूत काम करत कपूती के ।।२।। सवैया- मोल है जैसो जवाहिर को यह जानत जौहरी ना बनजारो। रीति कुलीन की जानै कुलीन ही ना 'हरिऔध' कबौं चरवारो॥ क्यो इतनो बिलपै-कलपै जो कियो पहले अरि के पतियारो। रे मन कूर न तोसो कही कव नंद कुमार है कामरीवारो॥३॥ ३-शंका बहुत बड़े अनिष्ट अथवा इष्ट-हानिके विचार को 'शंका सचारी' कहते हैं। इसके लक्षण विवर्णता, कप, स्वरमग, इधर-उधर दृष्टिपात करना, मुँह सूखना आदि हैं। कवित्त- ऑखि जो न खुली तो विगरि जैहै सारो खेल खलता सफलता की खाल खिंचवाइहै । काल है है कलह विबाद विकराल हहै विन जैहै बाल-बाल वैर अधिकाइहै ।। 'हरिऔध' जान जो न ऐहै तो अजान जन जीवन-विहीन जाति-जीवन बनाइहै। भरत कुमार भेट हहैं महा-भरत की भारत की भूमि भारतीयता गॅवाइहै ॥ ४॥