पृष्ठ:रसकलस.djvu/२७९

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रस-कलस zo मूठ कह्यो 'हरिऔध' सदा सब काज किये अपने मन भाये । क्यो अजहूँ नहिँ चेतत मूढ़ चिता पर पौढ़न के दिन आये ॥३॥ खोट कियो कितनो हित पेट के कर कमीनन को सँग दीनो । पीर-सी होन लगी उर जो 'हरिऔध' कहूँ नवला लखि लीनो । ताप भयो पर को हित देखत पाप मैं बीति गयो पन तीनो । ना करनी करनीन कियो कबहूँ कानाकर याद न कीनो ॥४॥ दोहा- मन तू कत भटकत फिरत विपिन बबूरन मॉह । तजि बहु-फलद मुकुंद-पद कलित-कलपतरु-छोह ॥शा कामिनि सुत हित नात सों कहा जुरत जिय जात । भजन देहि वल-तात के ए न चरन-जलजात ।।६।। २.-ग्लानि मनस्ताप, श्रम, दुःख क्षोम श्रादि से उत्पन्न हृदयजनित विकलता, शिथिलता प्रयवा असहनशीलता को 'ग्लानि' कहते है। इसके लक्षण कार्य करने में अनु- साह, घृणा, उपेक्षा आदि हैं । कवित्त- हहरत हियरो अधिक अधमाई हेरि हहरन वाको के जुगुत कौन हरिये । मेरो वार-बार अहै विविध-विकार-भरो होवे क्यो उबार बार-बार क्यो उबरिये ।। 'हरिऔध' पातकी है पातक-पयोधि परो कैसे पाप-पीनता गलानि ते न गरिये। नौ करि कहत रिसौंही अखियान देखि सौह होत नाहि कैसे सौहैं मुंह करिये ॥१॥ -