पृष्ठ:रसकलस.djvu/२८०

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पै ३१ संचारी भाव पामर 8 पामरता-पुंज के पयोनिधि ह प्रकटत रहत प्रभाव पुरहूती के। परम अबुध है बिवुधता दिखावत है कायर है बरत बिरद रजपूती के॥ 'हरिऔध' जाति-भाल-अंक है कलंक-भरो धूत है कै बसन रखत अवधूती के। पूत को है पूत अपूत-पाग मै है पगो। बनत सपूत काम करत कपूती के ॥२॥ सवैया- मोल है जैसो जवाहिर को यह जानत जौहरी ना बनजारो। रीति कुलीन की जान कुलीन ही ना 'हरिऔध' कबौं चरवारो ।। क्यो इतनो बिलपै-कलपै जो कियो पहले अरि के पतियारो। रे मन कूर न तोसो कही कब नंद कुमार है कामरीवारो॥३॥ ३-शंका बहुत बडे अनिष्ट अथवा इष्ट-हानिके विचार को 'शंका सचारी कहते हैं। इसके लक्षण विवर्णता, कप, स्वरमग, इधर-उधर दृष्टिपात करना, मुँह सूखना आदि हैं। कवित्त- आँखि जो न खुली तो बिगरि जैहै सारो खेल खलता सफलता की खाल खिंचवाइहै। काल ह है कलह बिबाद विकराल ह है बिन है बाल-बाल बैर अधिकाइहै ।। 'हरिऔध' जान जो न ऐहै तो अजान जन जीवन-विहीन जाति-जीवन बनाइहै। भरत कुमार भेट है हैं महा-भरत की भारत की भूमि भारतीयता गॅवाइहै ॥ ४॥