पृष्ठ:रसकलस.djvu/२८१

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रसकलस ३२ सूखतो न बदन विकपित न गात होतो हाथ-पॉव चलतो प्रगति अनुसरतो। जाति-हित-रत है विहित-रुचि - पूत होते वनति वनाये बात कीरति पसरती।। 'हरिऔध' चित की न चेतनता दूर होति परम अधीर-मति धीर क्यो न धरती। भय भूत करतो प्रभूत अभिभूत नाहि शंका की चुरेल जो चुरैलता न करती ।। ५।। सवैया- मुख कैसे दिखैहों सहेलिन को उनकी दिसि कैपे कहो चहिहौं । यह मोल को वानि हमारी जरी अब गारी हजारहूँ सहिहों ।। मोहि बेर बडी 'हरिऔध' भई कब लों या निकुजन मैं रहिहौं । कढ़िहों किमि गैल में गोकुल को कोऊ पूछिहै तो हौं कहा कहिहौं ॥ १ ॥ ४-असूया दूसरे के उत्कर्ष का असहन और उसके हानि पहुँचाने की इच्छा को 'असूया' कहते है । दोरायन, भृकुटिभग, तिरस्कार ओर कोष आदि इसके साधन हैं। कवित्त- कहा भयो जो है मधु-माधव-सनेही महा का भयो जो सोरभ-समूह-सहचर है। का भयो जो परम-रसिक है रमालता को का भयो जो कामुक सु-कुसुम-निकर है। 'हरिऔध' कहा भयो जो है कल-गान-कारी का भयो जो पद्मिनी को प्रेमिक प्रवर है। तन कारो मन कारो रंग कारो रूप कारो परम नकारो यह कारो मधुकर है॥१॥ .