पृष्ठ:रसकलस.djvu/२८७

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रसकलस बचन उचारत विरस रसना है होति मन है न बहुत उभारेहूँ उभरतो ।। 'हरिऔध' आलस रमित रोम-रोम मैं है उर मैं उमग है न मजु भाव भरतो । हाथ पर हाथ धरे वासर बितीत होत परि-परि भूतल पं पॉव है न परतो ॥१॥ पलक उठति तो न पल मैं पतन होतो तिल जो तुलत हानि होती क्यो अतुलतो । चलति चलाये जो न तन-कल काहिली के कैसे बन जात काति-हीन कात-कुल तो "हरिऔध' होतो जो न आलस लिलार-लिपि कैसे तो हमारो ना कलंक-अंक धुलतो मुँह जो खुलत तो अभाग खुल खेलतो क्यों ऑख जो खुलति भाग कैसे तो न खुलतो ।। २ ।। संवया- अम्नाई अकास मैं छाई लखाति दिवाकर हूँ निकरोई चहै । 'हरिऔध' गुलाव-कलीहूँ खिली सुखदाइनि-सीरी बयार बहै । परी मेज कहा अगिरात जम्हात तू लोयन को उठि लाह लहै । पलकें न खुले अलकै विथुरी इतनी क्यो अली अलमानी अहै ।।३।। दोहा- तब कैसे उठि कछु करहि चलहिं फिरहिं कहुँ जाहि । जब पग - पग पे पग परत परत परगहूँ नाहिं ।।४।। ९-विवाद इट न प्राप्त होकर अनिष्ट होने में जो दु ग्व अथवा उपायाभाव के कारण पुत्वार्य हीनता जन्य जो मानमिक कट होता है, उसको 'विपाद' कहते हैं । इतरे नक्ष्गा निश्वास उच्छाम, मनोंवेदना श्रादि है।