पृष्ठ:रसकलस.djvu/२८९

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रसकलस 85 बहु ललकित लोचन हुतो हेरि जेहि कलित-केलि । है विदलित भूतल परी वह अलबेलो बेलि ॥५॥ १०-मति लाल है के भ्रान्ति का कारण रहते भी यथार्थ ज्ञान बना रहना 'मति' है। इसके लक्षण मुस्कुराहट, धैर्य, सतोप और आत्मावलबन हैं। कवित्त- काहू के विलोचन न काल होते छिनै मुँह-कौर ना करेजो कोऊ छिलतो । कुचित, कुतेवर, वनावतो दुचित नाहिं कहत उचित बातहूँ ना मुँह सिलतो । 'हरिबोध' सदन सदन सुखसाज होतो वदन सरोज मद-मद हंसि खिलतो। प्रेम होतो कैसे तो न मिलते मिलाये मन मेल होतो कैसे तो न मेल-फल मिलतो ।। १।। पावन परम कैसे बनतो अपावन ती भेट जो पतित-जन-पावन को जानतो । रहतो अकाम तो सकामता सतावति क्यो कैसे कुसुमायुध कुसुम-सर तानतो । 'हरिऔध' कुमति वनति कमनीय कैसे मतिमानता को जो सदैव सनमानतो । ममता मनन की जो होति मनमानी छोरि मानव को मन तो मनाये क्यो न मानतो ||॥ सवैया- लोग भले ही सिकोरि के आपनी भौहन काहि लखावै कलकहिं । कामी कुसंगी निसाचर हूँ अनुमानि लदा फिननो किन सकहिं ।। --