पृष्ठ:रसकलस.djvu/२९०

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४१ संचारी भाव । एक ही भाव सों ए 'हरिऔध' करै अनुरंजित राव औरंकहि । सीतलता हितकारिता हेरिकै को द्विजराज कहै न मयंकहि ॥३॥ दोहा- उचित जतन करि हेरतो जो घन-रुचि-तन ओर । क्यो मोहित होतो न तो मोहि-मोहि मन मोर ॥४॥ क्यो होतो कमनीय-तम सकल-अवनि-तल नाहि । कमल-नयन जो निवसते लोयन-कोयन माहिं ।। ५ ।। ११-चिंता हित की अप्राप्ति के कारण उत्पन्न आधि को 'चिन्ता' कहते हैं। इसके लक्षमा उद्विग्नता, ताप और उन्निद्रता आदि हैं । कवित्त- काहे गुन भारत को गुनहूँ न मानो जात काहे गुन होत जात औरन को औगुनो। काहे सुख लेसहूँ रह्यो न सुख-पूरित मै सहत कलेस क्यो कलेस-हीन सौगुनो। 'हरिऔध' काहें भूल मे है नित भूल होति काहे अनुकूल प्रतिकूल होत नौगुनी । दुख भरपूर बार-बार है विसूर होत सोचि-सोचि चित चूर-चूर होत चौगुनी ॥ १ ॥ कैसे भला दिन दिन दूनो दुख Qहै नाहि ऑखिवारो जोन ऑखि खोलिभलो करिहै। आपनो हितू ही मारिहै जो हाथ मारि-मारि कैसे नाहिं कोऊ तो बिना ही मौत मरिहै ।। 'हरिऔध' गाज जो गिराइहै गरजवारो कैसे तो गरीब पै न गाज गिरि परिहै । १८