पृष्ठ:रसकलस.djvu/२९३

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रसकलस ४४ सवैया- रोगन सोगन भोगन मै परि, तापन ते तिगुनो सपनो है। हैं अपने अपने हित के हित कौन हितू जग मै अपनो है। औधि को भूलत क्यो 'हरिऔध' तू सॉस के नापन को नपनो है। कोऊ सजीवन को लौं जिआइहै जीवन जीवन को सपनो है ॥३॥ टोहा- सुख-मय दुख-मय भूति-मय सरस विस्स बहुरूप । सपने की सपति सरिस है संसार सरूप ॥ ४॥ सब कछु है कछु है नहीं अवलोकन भर सार । अपनो है अपनो नहीं है सपनो ससार ॥ ५॥ १४-विवोध निद्रा दूर करनेवाले कारणों से उत्पन्न चैतन्य-लाभ को 'विबोध' कहते है। इसके लक्षण जमाई, अँगड़ाई, आँख खोलना, अंगो का अवलोकन करना आदि होते है। कवित्त- भाग-भाग कहि सो बनगो कैसे भागवारो भभरि-भभरि जो अभाग ते है भागतो। जो है लोक-सेवा की लगन नाहि सॉची लगी कैसे लाभवारी हहै लोगन की लागतो। 'हरिऔध' नाना-अनुराग को कहा है फल देस-राग में है जो न मन अनुरागनी । कहा जागि कियो कहा लाभ है जगाये भयो जागे हूँ जो जी मै जाति-हिन है न जागतो ॥२॥ बीर जन-वीरता वसुधग-विवाधिनी है माहमी ही माहम दिग्बाइ होत आगे हैं। ,