पृष्ठ:रसकलस.djvu/२९९

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रसकलस yo १९-अवहित्य भय, लजा और गौरवादि के कारण अपनी अवस्था अथवा किसी बात को छिपाना ‘अवहित्य' कहलाता है। इसके लक्षण बात वराना, दूसरी ओर देखना, अनमीष्ट कार्य में प्रवृत्त दिखाना आदि हैं। सवैया-- मानत हार हैं हार भये पर पै मन मै अनुमानत जीते । है हरुओ पर चाहत हैं सुनो औरन ते गरुओपन गीते। प्रीति को वानो रखै 'हरिऔध' पै पावत मोद किये अनरीते। ऑखि चुरावत राति सिराति है बात बरावत बासर बीते ॥१॥ दोहा- कुल-ललना सकुची सहमि मिले नैन ते नैन । मुंह के मुंह मे ही रहे कह अधकहे वैन ||२|| चित-चंचलता देखि के पिय - चचल - दृग मोहि । लागी गिनन कमल-मुखी केलि - कमल-दल कॉहिं ।।३।। २०-दीनता विविध दु.ख तथा विरह आदि के कारण चित्त के ओज-रहित होने का नाम 'दीनता है। खिन्नता, मलिनता, साहस-हीनता आदि इसके लक्षण हैं । कवित्त- मानत न मन मनमानी ही करत नित तनहूँ हमारो नाहिँ बस में हमारे है। बहु दुख बार-बार दुखित बनावत है दादिर-दमामा-दीह वाजत दुआरे है।