पृष्ठ:रसकलस.djvu/३००

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५१ संचारी भावा 'हरिऔध' मान महनीयता को देत नाहि मति कमनीयता ते रहति किनारे है। दीनबंधु तो सों दीनबंधु कौन दूसरो है दीनता हमारी दीनबंधुता सहारे है ।। १ ।। कैसे मुख जोहतो सुजनता-विमुख-जन को सॉसत-दुसह कैसे बार-बार सहतो । कर जोरि-जोरि क्यो निहोरतो अनेहिन को तेहिन के तेह की तरंग मैं क्यों बहतो । 'हरिऔध' कैसे बलवानन की बलि होतो कैसे खल - गौरव के रौरव मै रहतो। दयानिधि तू जोदयानिधिता दिखावतोतो कैसे दीन दीनता-दवागिनि मैं दहतो ।।२।। दोहा निरखि निरखि निज दीनता क्यो न दीन विलखाहिं । दोनवंधु मै देखियत दीनबंधुता नाहि ॥शा दीनबंधु को दीन को बंधु जानि मन माहिं । नित फूले-फूले फिरत पै फल पावत नाहिं ।।४।। २१-हर्ष इष्ट की प्राप्ति से चित्र को जो आनद होता है उसे 'इ' कहते हैं। इसके लक्षण गद्गगद स्वर, पुलकावलि, उत्फुल्लता आदि हैं। कवित्त- मन के बिलास ही ते ललित बिलासिता है। मन सुधार-धार ही सुधानिधि मै वही है। मन-रस ही ते है रसिकता सरस होति मन-माधुरी ते रुचि माधुरी की रही है।