पृष्ठ:रसकलस.djvu/३०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रमकलस ५२ हरिऔध' भजु मन ही है मजुता को मूल लोने-मन ही ते लता लोनी लहलही है। नन के प्रमोद ही ते दिसा है प्रमोदमयी मनोमोद ही ते मोदमयी सारी मही है ।।१।। संवैया- मोहन मोहमयी मुरली सुनि मोहित हतिय है सुधि खोती। मांदमयी बतिया उर-भूमि मैं है वर बीज बिनोद के बोती । हेरि मनोहरता 'हरिऔध' की नैनन ते बरसावति मोती। लालन की अलकावलि को लखि है तन मैं पुलकावलि होती ।।२।। दोहा- ललकित-पुलकित-नयन ते करि रस-पान अथोर । हॅसत निरखि नभ-चद को है बिहँसत मन-मोर ।।३।। किलकत हॅसत ललकि - ललकि जात जननि की गोद । मोद होत काको नहीं निरखत बाल-विनोद ||४|| वित्त- कोमल-कलित-कठ-गान ते निहाल होत मुनि बर वादन विनोदित रहत है। प्रवलोकि लोने लाल ललना-ललाम-मुख प्रति-पल पुलक-प्रवाह मैं बहत है। 'हरिऔध' भागवान चौगुनो-उमाह-भरो चट चॉदनी को चाहि-चाहि उमहत है । पुलकित बनत विलोकि विटपावलि को मोद कुमुमावलि ते विपुल लहत है ।।५।।