पृष्ठ:रसकलस.djvu/३०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

असकलस काहे घूघट खोलि कै नहिँ करि लेति निहाल । लालन - लोयन - ललक को कत ललकावति वाल ॥५॥ २३-उग्रता स्वार्थ, रोष तथा अपराधादि के कारण उत्पन्न हुई निर्दयता और चहता का नाम 'उग्रता' है । इसके लक्षण शिरकंपन, तर्जन-गर्जन और ताहनादि हैं। कवित्त भारत को जन भरि-भरि भारतीयता मैं जा दिन उभरि जाति भीरुता भगाइहै। भूरि-भाग बनि भूति मान ह है भूतल मैं सकल-भुवन कॉहि भवन बनाइहै 'हरिऔध' साहस दिखाइहै तो सारो लोक सहमि-सहमि सारी सूरता गॅवाइहै । डोलि जैहै आसन महेस कमलासन को सासन विलोकि पाकसासन सकाइहै ।।१।। दीन-दुख देखि-देखि दुग्यत करेजो नाहिं दूनो दाम मॉगहिँ दुखन की दवाई के । औरन को गरो दावि-दावि गरआई गर्दै पोर-पोर मैं हैं भरे भाव करुआई के। 'हरिऔध' कूरन की कूरता कहा लौं कहै चित्त ना कमहि काम करहिं कसाई के। पेरि-पेरि औरो पीर देहिं पीरवारन को पिमे कॉहिं पीमि पैसे मॉगहि पिसाई के ||२|| दोहा- - कोऊ चित मम चन को पोसि-पीमि है जात । जो पाहन होतो न तो पाहनपन न लखात ||३||