पृष्ठ:रसकलस.djvu/३०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रसकलस ५६ है दोहा-- मन अनुरंजन करत है अनुरंजित-नभ-राग । जागि गयो सिगरो जगत जागनवारो जाग ।।३।। परे कब नहीं कृप मैं अपनो रूप विसारि । कब बरवस खोये नहीं सोये पॉव पसारि ॥ ४ ॥ २५--व्याधि शरीर में विविध रोग के सचार का नाम 'व्याधि' है। इसके लक्षण काम. आकुलता, मूर्छा, विकलता आदि हैं। कवित्त- कलही कलंक-धाम कुल के कपूतन ते धूत अवधूतन ते सारो देस भरो है। जन-जन-जीवन प्रमाद-परिपूरित घर-घर बहु बाद पॉव रोपि अरो है। 'हरिऔध' हेरि-हेरि पकरि करेजो लेत सहमे सहमि गात रोम होत खरो है। अतन-समान है समाज को पतन होत तन बिन गयो तन जाति-मन मरो है॥१॥ दूबरो सरीर अंग-अंग है कसर भरो सूखो सो बदन सादी रहन-सहन है । चारु है विचार है चकित-कर चितवन चाव है बचाव-भरो रुचिर वचन है। 'हरिऔध' को है भाव विविध-विभाव-भरो परम-प्रभाव-भरो कलित कथन उर अनुराग-भरो मानस विराग-भरी जीवन वियोग-भगे रोग-भगे तन है॥