पृष्ठ:रसकलस.djvu/३०७

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रसकलस ५८ जल थल अनल अनिल को बिकास बनि विकसित अवनि अकास मैं रहत 'हरिऔध' कर के निकर की बिमाकरता वारिधता बूद की निबाहि उमहत है। एकता बिचारि जग-जीव जग-जीवन की जीवन गॅवाइ जन-जीवन लहत है ॥२॥ दोहा- वह न अमर है तो अहै अमर अमर-सम कौन । जिअत मरत मरि-मरि जित जगती-तल मैं जौन ।। ३।। परो काठ-सम तन रहत सुत तिय हा हा खात । तजि वन जन प्यारो सदन प्रान कहूँ चलि जात ।। ४ ॥ २७-- अपस्मार अवस्याविशेष के कारण मिरगी-रोग के सम न चत का विक्षेप होना 'अस्मार कहलाता है । भूमि-पतन, कपन, प्रस्वेद, मुख से झा । और ल र का निकलना इसके लक्षण हैं । भूत बाधा अथवा प्रयाग आदि के कारण यह अवस्था उत्पन्न होती है। कवित्त- विधि-वामता है के करालता कपाल की है किधौं पाप-दव है प्रपंच-पूरि दहतो । किधों फल अहे रुज विविध असंयम को के है या मैं नियति रहत्य कोऊ रहतो। 'हरिऔध' क्छु भेद होत ना ती कैसे जीव कर पग पटकि दुमह-दुख महतो । धूल मैं लुठत कसे कमल-मृटल-नन फल-जैसे प्रानन ते फेन कैसे वहतो ॥१॥