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पृष्ठ:रसकलस.djvu/३११

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u रसकलस कवित्त- दुख के समूह ते करत हित-कामना है मोहित ह मोह ते बजावत बधावरो। बोमो राखि सीस पै विविध सहबासिन को ढोअत है कंधन पै अंधन को कॉवरो। 'हरिऔध' वनो घर वारन को घोरो रहै बनै कबौं भोरो कबौं गोरो कबौ सॉवरो। हारो हारो रहत सहारो है लहत नाहि रावरो बनत ना हमारो मन बावरो।।१।। तूठे रहे मूठे मूठे भावन ते भोरे बनि तिनके अँगूठे देखे जो नित तने रहे। जग को प्रपंच मानि छूटे ना प्रपचन ते जाल तोति-तोरि जाल जकरे घने रहे। 'हरिऔध' सॉसन की आस को न आस मानि सॉसत-समूह मॉहिं सतत सने रहे । सॉवरे वजत रहे बहॅक वधावरे ही रावरे कहाये तऊ वावरे बने रहे ॥२॥ दोहा- बहु बिरुझत वहॅकत वकत विगरत बनत विमोहि । बार-बार मन वावरो करत वावरो मोहि ।। ३ ।। रोवत गावत बहु हॅसत रीझत खीमत जात । वकत विगत वावरो बहरावत वतरात ॥४॥ ३१-जड़ता विवेकशन्य और किंकर्तव-विमृद चित्तवृत्ति को 'जड़ता' कहते हैं। इसके क्षण टकटकी लगा के देखना चुप होना चलने-फिरने में असमर्थ होना आदि हैं।