पृष्ठ:रसकलस.djvu/३१२

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.३ संचारी भाव फवित्त-- जहाँ के तहॉ हैं परे कर पग अगना के तन भयो काठ ना उघारति पलक है। विपुल घुलति जाति हिलत-डुलत नाहि कलित कपोल पैन लुरति अलक है। 'हरिऔध' कहा भयो कहत बनत नाहि कामिनी को भई आज कौन-सी कलक है। लोयन-ललक है कै मलक लगन की है छल है छलावा है कि छोह की छलक है ।।१।। चलत न हाथ पॉव सुनत न कोऊ बात खुलति न ऑखि गात-सुरति बिसारी है। कहा होत अहै कहा ह है कहा कीबो अहै याहू को न ज्ञान सारी सुधि हूँ सिधारी है। 'हरिऔध' मूकता है मन मूक हूँ ते धनी मानो महामोह भये गई मति मारी है। पाइकै सजीवता सजीव है वनति नाहि जीवन-बिहीन कैसी जड़ता हमारी है ।। २ ।। दोहा- देह गेह के नेह ते सॉसत सहत अतोव । तऊ तजत जड़ता नहीं यह मेरो जड़ जीव ।। ३ ।। चकित भई अचपल भये लोचन चपल रसाल । चितै चितेरे को बनी चित्र-पूतरी बाल ।। ४ ।। ३२-चपलता मत्सर, देष, रागादि के कारण अनवस्था तथा अस्थिरता सहित कार्य करने को चपलता कहते हैं। इसके साधन धमकाना, कठोर शब्द कहना और उच्छृखल आचरण करना आदि हैं।