रसकलस ६४ कवित्त- पल-पल दौरक करत मनमानी जतन किये हूँ मोह मन को गयो नहीं । परि-परि बस मॉहि बासना बिमासिनी के कब तन पापी नाना ताप ते तयो नहीं। 'हरिऔध' हारि परे नेको हित होत नाहिं कब सुख-चाह सुख चाहत नयो नहीं । बाल-मति आकुलता-अंचल तजत नाहि मेरो चित चंचल अचंचल भयो नहीं ॥१॥ वैरि-दल जाते बार-बार बलवारो बने लोप होवै ऐसी लोक-लोपिनी अवलता। दिन-दिन दूनों जाते दानवी-दमन होवै धूरि मॉहिं मिले ऐसी मानवी सरलता। 'हरिऔध' जाते नर-विपुल विफल हौवै धरा मॉहिँ धेसै ऐसी सकल-विफलता । जाते लहै चौगुनी विकलता विकल जन चूर-चूर हौवै ऐसी चित्त की चपलता ॥२॥ सवैया कुज मैं राजति ही मुग्व-मजु ते के कल-कजन की छवि औगुनी । वात वह तहों तो लौ भई नहिं जाहि रही मन माहि कबौं गुनी। चौंकि परी 'हरिऔध' को चाहि उमाहि चली वनि आकुल-चौगुनी। नौगुनी चावमयी-चपला भई लोचन-चचलता भई सौगुनी ॥ ३ ॥ दोहा- चाव भरे चित-चोर को लम्बि चितवत ललचात । चंचल नयनी को भयो चित चलदल को पात ॥४॥
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