६५ संचारी भाव चली जाति कल-कुंज मैं चौंकति खरके पात । चपला निज-गति-चपलते करि चपला को मात ॥५॥ ३३-वितर्क किसी प्रकार का विचार उठते ही चित्त में सदिग्ध भावों का उदय होना और इट' कुतः में लग जाना तर्क कहलाता है । इसके लक्षण भृकुटी मग. सिर हिलाना और उँगली उठाना आदि हैं। कवित्त - नुनि सुनि केहूँ हैं सुनत हित-वात नॉ हिं जानि गुन-औगुन गुनन मैं न सने हैं। जिनही ते जान है परति जान-हीनन मैं तिनकि तिनकि तनि तिनही ते तने है। 'हरिऔध' का हैं ए हमारे आन-बानवारे जड़ है कि जीवन-बिहीनन के जने हैं। भारे हैं कि चाहन उमाहन ते कोरे अहैं कै हैं हर-बाहन कि पाहन के बने है ॥१॥ जो मन हमारो सदा मानतो हमारी कही परमविमुख को तो मुख कैसे जोहते । जो न मति होति लुंज कैसे तो मनुज 8 के गुंजा-पुंज कॉहि मंजु मोतिन मैं पोहते । 'हरिऔध' कामना रखति कमनीयता तो कमनीय भाव कैसे उर मैं न सोहते । तरी दया होति तो न दयनीय होते राम तेरी मया होति तो न माया-मोह मोहते ॥ २॥
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