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पृष्ठ:रसकलस.djvu/३२५

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रसकलस होत वहाँ हूँ थिर नहीं जहें पानी की खान । इतनो पानिप कियो मछरिन को अखियान ।।६।। गन लजे मीनन लखत इत उत दौरत नॉहि । डूबन को ढूँढ़त फिरहिं ए अगाध जल कॉहिं ॥४॥ नेक न थिरता गहन की है खंजन की बान । काको नहिं चचल करहिं ए चचल अखियान ।।।। कढ़त न काढ़े कैसहूँ किये जतन दिन - रैन। कछु चित में ऐसे गड़े बडे - बड़े ए नैन l चखन हाथ पानी गये भई झखन अस दाह । कटे मर मिटे हूँ रही पानी ही की चाह ॥१०॥ काको रंग विगरत नहीं बदलो लखि ग - रग। भये सुरंगहुँ मृगन को कवि - गन कहत कुरंग ॥११।।' जितनो तिरछे ह चलें तितनो करें निहाल । इतनो लोच न क्यो रखें ए तव लोचन वाल ।।१२।। काहि न ए अपनावहीं इनको कौन अहै न! कहा करि सकत हैं नहीं बाल तिहारे नैन ॥१३॥ कौन ममाले से बने देखे-भाले हैं रस के प्याले से लर्से निपट निराले नैन ॥१४|| नीति - निपुन नागर परम रस-गागर मुद - ऐन। सागर सील सनेह के सव - गुन - श्रागर नैन ॥१५॥ नेत्र लाली दोहा- लाल लाल डोरे परे कै अखियान - मँझार । में लगे के अनुराग - सेवार ॥ सुधा - सरोवर में