पृष्ठ:रसकलस.djvu/३२६

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७७ आलंबन विभाव किधौ कलित - कोयन रही लोयन'-लाली राजि । अरुन - राग-रंजित किधौं उखा रही विराजि ॥२॥ लहू वहावत देखियत अव लौं अँखियन कॉहिं । आली यह लाली नहीं लहू लग्यो तन मॉहिं ।।३।। पुतली लोयन - कोयन मैं अरी अमित पूतरी नाहिं। कारे - नग ए जगमगत रतनारे नग मॉहि ॥१॥ ललना लोयन मैं न यह पुतरी लसति असेत । अतसी की पखुरी बसी कमल - दलन छबि देत ॥२॥ कारी - कारी पूतरी प्यारी अँखियन मॉहि। मानिक - रंजित रजत मै मरकत राजत नाहि ।।३।। बाल - विलोचन मैं नहीं पुतरी - असित दिखात । अरुन-राग • जुत सित - गगन मै राजत रवि - तात ||४|| अंजन-रेखा अंजन - लीक अलीक कहि कत वहरावति मोहि । प्यारी मृग - ग पै रही कारी धारी सोहि ।।५।। के अंजन की रेख लखि अँखियन होत विनोद । सोवत खंजन - सिसु परो के खजन की गोद ।।६।। कहि अंजन की रेख कत कवि-जन बनत अजान । वरवस काहू सो विगरि बिख उगिलहि अखियान ||७|| विना सुधाहूँ नहिँ सधत विखहूँ बिना वनै न । कासो काज रखें न ए काजरवारे नैन ! || काजर - रेख रखै रखै न जी - जारनवारी ऑख । काहु जी-जरे के जरे जी की है यह राख Illl