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पृष्ठ:रसकलस.djvu/३३०

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C -१ आलंवन विभाव लखे पात प्यारो-प्यारी छवि - सनी सुवरन - वारी जोय । वारी पै पै वारी भई मति मतवारी होय ।। ७ ।। हैं न कंज-कल-नयनि के ए झूमक छवि-रास । अपत होइ कमलन कियो कानन माहिं निवाम ॥ ८॥ कत कोऊ बूझे बिना कानन को पतियात । उतपात है पात-पात मन जात ॥ ६ ॥ मन-मंदिरहिं सलाकयुत कीवो उचित जनात । यह कानन की वीजुरी करति महा उतपात ॥ १० ॥ सुरुचिर स्रोनन के लखे चकाचौंध लगि जात । तहाँ दीठ काकी जुरी जहाँ वीजुरी-पात ।। ११ ।। कपोल दोहा- काको नहि बेलमावहीं काहि न करहिं निहाल । ए गुलाब के फूल से गरवीली के गाल ॥१॥ वा कपोल को है बलित-ललित-लालिमा जौन । माखन को गोला कहे माख न मानत कौन ॥२॥ वरजोरे कत जो रहत मन मोरे सव काल । गोरे-गोरे ए गरल-भरे निगोरे गाल ।। ३ ।। गोरे-गोरे चीकने अमल मो चित विचलित होत लखि लोने-ललित कपोल ।।४।। कछु अनखुन करि नहिं चलै अँखियन ही सों चाल । गालिव कापै होत नहिं गहव-गुलावी गाल ॥५॥ सपरत कछु न परत बनत लोयन भये अडोल । पलक-पोल पल मैं खुलत पुलकित पाइ कपोल ।। ६ ।। अनगन-जन-मन को करें अनुरंजन सव काल । भोरे भोरे भावजुत गोरे गोरे गाल |॥ ७॥ अनूप अमोल।