पृष्ठ:रसकलस.djvu/३३२

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53 आलंबन विभाक मुसकान कवित्त किधौं तम-विदु की कतार में सुधा की धार किरिन कढ़ी है किधौं कालिमा-प्रतीची मैं । कांति कैधौं हीरा को लसति पॉति-नीलम मैं जोति वगरी है के कलिदजा की वीची मै हॉस-रस-सोत के सिगार-रस-बूदन मै 'हरिऔध' कैधौं कला मंद की मरीची मै कारे-दंद-पॉति मै लसी है मुसुकान किधौं थिरकि रही है बिज्जु वादर-दरीची मैं ।। १ ।। सोहा- मीत-नयन मन-अयन वरसि सरस रस जाति । मंद - मंद महि पग धरति मंद - मंद मुसुकाति ।।२।। है दामिनि की दमक सी दमकति करि रस-दान । बदन - कलानिधि - कला सी कलामयी मुसुकान ।।३।। स - छबि बनावति छबिहुँ को बनि सौगुन छविवान । कुसुम -विकास - विमोहिनी विकसित - मुख - मुसुकान ॥४॥ सोहति सोही सिता सम मोहति मोह समान । ललना - लाल - अधर - लसी ललक - भरी मुसुकान ||शा अधर कवित्त- को कहै अमी को निवास अमरावती मै कोऊ कहै कवि की कलित कवितान मैं । कोऊ कहै अमल मयंक की मरीचिन मैं, कोऊ कहै सिसु की सरस वतरान मैं