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पृष्ठ:रसकलस.djvu/३४०

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६१ आलंबन विभाव एड़ी दोहा- वाते निकसत ही रहत वर - बिनोद - रस - सोत । कौहर सी एड़ी लखे को हरखित नहिं होत ॥१॥ लहि लालिमा अनार सी इंगुर सी सब काल । ललना की एड़ी ललित लालहुँ करति निहाल ॥२॥ तजि सुहावनो सब समय बनि एड़ी-अनुकूल । दुपहर को फूलत रहत दुपहरिया को फूल ।। ३ ।। पाँव - दोहा- ललना के पद-युगल हैं लोभनीय रमनीय । कोमल-पल्लव से मृदुल अमल-कमल कमनीय ॥१॥ निरखि मंजुता पगन की मगन होत है मार । मुदित तिहूँ पुर को करति नूपुर की झनकार ॥२॥ पद-नख बहु-मोहक सुकुमारता विकसित सी दिखराति | गोरी-पग-अगुरीन मैं विलसति तारक-पॉति ॥ १॥ प्यारी पग-अगुरीन मैं लसति नखन की जोति । चंपक की कलिका किधौं मनि - गन - मंडित होति ॥२॥