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पृष्ठ:रसकलस.djvu/३४५

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रसकलस ६६ 3 दोहा- गाइ बजाइ दिखाइ छबि भरति हिये मैं जोति । चलि कबूतरी सी तिया नयन-पूतरी होति ॥१॥ ३-शंखिनी शखिनी कृशांगी, निर्लन और अभिमानिनी होती है। दोहा- अनख करति तनिकै चलति लजति न नेकौ बाल । देखि निलजता आप ही सलज बनत हैं लाल ॥१॥ ४-हस्तिनी हस्तिनी स्थूल-शरीर, लोम-वती, गज-गामनी, कोपन-स्वभावा, उद्धत- प्रकृति और कटुवादिनी होती है । दोहा- नख-सिख भारीपन-भरो रंग-रूप अ-ललाम। नार्हि काम हूँ ते सरत काम-भरी को काम ॥१॥ प्रकृति-संबंधी मेद १-उत्तमा उत्तम-स्वभावा धर्म - परायणा, उदार- हृदया, देश - समाज -प्रेमिका और अहितकारी होने पर भी पति का हितकारिणी स्त्री को उत्तमा कहते हैं। पति-प्रेमिका कवित्त- सेवा ही में सास औ ससुर की सदैव रहै, सौतिन सो नॉहिँ सपने हूँ मैं लरति है। मील सुवराई त्यों सनेह-भरी सोहति है, रोस रिस रार ओर क्यो है ना ढरति है।