पृष्ठ:रसकलस.djvu/३४६

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Es नायिका के भेद 'हरिऔध' सकल गुनागरी सती समान, सूघे सूधे भायन सयानप तरति है। परम-पुनीत पति-प्रीति मैं पगी ही रहै, प्रानधन प्यारे पै निछावर करति है॥१॥ सवैया- वैन कहे करुये पिय के हरुये तिय वोलि सदा सनमाने । दोस अनेकन देत तऊ कबहूँ अपने मन रोस न आने। ना करनी ही कर 'हरिऔध' पै बाल न नाकर-नूकर ठाने । नाह के कीने गुनाहन हूँ तिय आपनो नेह निबाहन जाने ।।२।। सौतिन की तिरछौंही चितौन ते हो नहीं तनको तलवेली । काम की कीरति सी 'हरिऔध' लखे रुख रूखो न होत कटेली । पी-अनुकूलता-बारि बिना हूँ सदा थल सीतलताहि सकेली। या अलवेली हिये पलु है पल ही पल प्रीति-प्रतीति की वेली ।।३।। आपनो अंग पतंग दहै पै न दीपक-जोति को भाव जनावै । पीतम के सँग प्यार-पगी-पतिनी नहिँ पावक हूँ को सकावे । प्रीति-पुनीत की ऐसिय रीति महीतल मैं 'हरिऔध' लखावै । व्याकुल है कलपै मन-मीन बिना जल ना पलकौ कल पावै ॥४॥ परिवार-प्रेमिका कवित्त- सुधा-सने वैन के बिधान मैं अबिधि है न सहज-सनेह की न साधना अधूरी है। सब ते सरस रहि सरसति सौगुनी है भोरे भोरे भावन ते भूरि भरी-पूरी है।