पृष्ठ:रसकलस.djvu/३४७

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रसकलस हम 'हरिऔध' सौति के सुहाग ते सुहागिनी है सास औ ससुर की सराहना ते रूरी है। पति-पूत-प्यार मानसर की मरालिका है। परिवार - पूत - प्रेम - पयद - मयूरी है ॥ १ ॥ वर - दार बनति कुदारता निवारति है अनुदारता हू मै उदार दरसति है। पर - पति - पूत को स्व-पति-पूत सम जानि पावन - प्रतीति पूत - पग परसति है। 'हरिऔध' परिवार - हित नव - वीरुध पै विहित - सनेह - वर - बारि वरसति है। अनरस हूँ मैं रस - बात विसरति नाहिं रस - मयी - बाल रोस हूँ मैं सरसति हे ॥२॥ बानी के समान हस - बाहनी रहति वाल नीर - छीर बिमल - बिवेक वितरति है। सती के समान सत धारि है सुखित होति वामता मैं बामता ते रखति बिरति है। 'हरिऔध' रमा सम रमति मनोरम मैं भाव - अमनोरम ते लरति भिरति है। पूत प्रेम - पोत पे अपार - पूतता ते वैठि परिवार - प्यार - पारावार मैं फिरति है ॥३॥ जाति-प्रेमिका कवित्त- सरसी समाज - सुख सरसिज-धज की है. सुरुचि - सलिल की रुचिर - सफरी सी है।