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पृष्ठ:रसकलस.djvu/३४९

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श्सकलस १०० वारती नगर पर मजु - अमरावती को नागर- निकर को पुरंदर है जानती। 'धेनु को कहति कामधेनु सम काम - प्रद कामिनी को सुर - कामिनी है अनुमानती । 'हरिऔध' भारत - अवनि - अनुराग - वती बिपिन कौ नंदन - विपिन है बखानती । तरु को वतावति कलपतरु कमनीय मेरु को मनोरम सुमेरु ते है. मानती ॥२॥ गौरव को गान सुने गौरव गहति बाल पव-गुरुता ते गिरे गिरि ते गिरति है। देस की सजीवता ते लहति सजीवता है जीवन - विहीनता ते बढ़ति बिरति है। 'हरिऔध' भूति देखे बनति विभूति - वती विपति के घेरे घोर - दुख ते घिरति है । भारत के भूले गात - सुधि भूलि भूलि जाति फूले फले फूली फूली ललना फिरति है ॥३॥ काति-मती चनति दिवसपति - कांति ते है रजित करति लोक - रंजिनी रजनि है। सुधाधर-सुधा - सम - सलिल - सु-सिंचित है वसुधा - विदित - रत्न - राजि-मजु-खनि है। 'हरिऔध' भाव-मयी-भामिनी-विभावना है भुवन - विकास-भूति - भारति - जननि है। भवन - प्रभूत - अनुभूत - सिद्धि-साधना है भूतल की सार - भूत भारत - अवनि है ।।४|| com