पृष्ठ:रसकलस.djvu/३५५

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रसकलस १०६ सधवा को सोधि सोधि सोधति सुधारति है बिधवा को बोधि बोधि बुधता बरति है। 'हरिऔध' धोवति कलकिनी - कलंक-अक वक - मति - बंकता असकता हरति है। आनंदित होति करि आदर अनिंदित कौ निंदित की निंदनीयता को निदरति है ।।४|| मोद मानि मद-जन-मदता निवारति है मानदै अमद को है मद मंद बिहॅसति । वरसत नेह - वारि मानस - विरस मॉहिं असरस - चित को सरस करि सरसति । 'हरिऔध' विकच - बदन अवलोकि बाल विकसित - कुसुम - समान बहु विकसति । रहति सु - वासित सु - कीरति - सुवास ते है विमल-बिलास ते बिलासिनी है विलसति ।।५।। धर्म-प्रेमिका कवित्त- भजनीय-प्रभु के भजन किये भाव-साथ यजनीय - जन के यजन काज तरसे । लोक अवलोकि परलोक-साधना में लगे वचे लोभ-मूल-लोक - लालसा - लहर से | 'हरिऔध' परम - पुनीत अंगना है होति वार वार नैनन ते प्रेम - वारि बरसे । धरमधुरीन की सहज - धारना के घरे पग - धूरि धरम - धुरंधर की परसे ।।११॥