पृष्ठ:रसकलस.djvu/३५८

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नायिका के भेद १०६ जन क्यो कुजनता कियेहूँ ना कुजात होत जनि जनि लाल है जननि काहे थहरति । 'हरिऔध' काहे अहै अवनि - अनीति-मयी काहे नाहिं यामै है सुनीति - लता लहरति । नर की ललामता क्यों लसति अलीन माहिं नारि-छवि काहें है छलीन मोहिं छहरति ॥१॥ नर जो पढ़त सो नरोतम बनत काहें काहे सो कु - नारि होति नारि जो पढ़ति है। पिय जू के पाप काहें पापहूँ न माने जाहि काहे नेक चूके तिय ऑखि पै चढ़ति है। 'हरिऔध' धूमि गये सकल - वसुंधरा में काहे घरवारन की कीरति बढ़ति है। काहे तो उपरि जात वाको लाज-चादर है घरनी जो घरहूँ ते बाहर कढ़ति है ॥२॥ प्यारो जो न कैहै कछू उपचार प्यार को तो प्यारी को लौं प्यार के कै प्यार को उबारिहै। प्रिय जो प्रतीति की प्रतीति उपजैहै नाहि तिय तो प्रतीति-पथ कौ लौ निरधारिहै। 'हरिऔध' कैसे नातो ललना-विगार छैहै वात वात मैं जो वात लालन विगारिहै । कोऊ पति-वारी तो कहॉ लौ पति-मान कैहै कोऊ पति पतिनी की पति जो उतारिहै ।।३।। सवैया आदर आये कर अति ही बतियॉ हूँ सुधा सों भरी मुख भाग्ने । वान सनेह बिगोवै नहीं कवौं सील हूँ ना अँखियान की नाखे । -