पृष्ठ:रसकलस.djvu/३५९

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रसकलस ११० - दोस दै रोस किये 'हरिऔध' के नेकहूँ ना अपने मन माझे । पै परतीन के प्रेम - पगे - पति को पतिनी परतीति न राखे ॥४॥ ३-अधमा पति की अहितकारिणी, उद्धत-स्वभावा और कर्कशा स्त्री को अधमा कहते हैं। कवित्त रूप है तो कहा कोऊ और रूपवारो नाहि रखत रसालता न वनत रसीले है। बनक बनाइ इतरात वात बात मैं हैं रंग विगरे हूं बने रहत रँगीले हैं। 'हरिऔध' नारि कहा छगुनी छवीली नाहि छिति माहिं वेई नही छयल छवीले है। गोरी गोरी - ललना गरे परि न भोरी वने गोरे - गोरे - मरद - निगोरे गरवीले हैं ॥१॥ नैनन के वान सॉचे चान ही बनेंगे अव कामिनी के पास वॉकी-भौंहन की असि है। वरसि वचन गोले विवस वन है महा कसक निकासि भुज - पासन सो कसिहै। 'हरिऔध' रखहिं अकस न अकस - वारे ना तो कोऊ सुबस बसेहूँ नाहिँ वसिहै। केहरि सी लक - वारी हरि है कलक - अंक नागिनि अलक-वारी नागिनि सी डॅसिहै ॥२॥ आन-बान-बारो आन-बान दिखराइहै तो कैसे ना कमान को कमान-वारी सजिहै। नैनन के अवु मैं जो अबुता न साँची पैहे कबु तो न कैसे कबुता दिखाइ बजिहै ।