पृष्ठ:रसकलस.djvu/३६१

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रसकलस ११२ प्यारे प्यारे-मुख पै सॅवारे - कारे- केसन को एरे मेरे नेह - वारे नैनन निहारि लै ॥१॥ सवैया- कामिनी के कल - वैन सुने नहीं कानन हूँ करी कोटि - कला है। प्रीतम - प्रीति - प्रतीति मैं वाल सनेह - वती-सिय लौ सवला है। ही 'हरिऔध' मयी अंखियान विराजत एक ही नंदलला है। भाग-भरी त्यो सुहाग - भरी अनुराग - भरी नवला - अबला है ।।२।। स्वकीया के भेद अवस्था के अनुमार स्वकीया के निम्नलिखित तीन मेद हैं- २-मुग्धा २–मध्या और ३-पौढ़ा। १-मुग्धा समधिक-लजावती, काम-चेष्टा रहित अकुरित-यौवना को मुग्धा कहते हैं। उदाहरण कवित्त- वयन सुधा मैं सनि - सनि सरसन लागे, कान परसन लागे नयन नवेली के। ऑगुरी की पोरन मैं लालिमा दिपन लागी, गुन गरआन लागे गरव गहेली के । 'हरिऔध' हेरि हेरि हियरो हरन लागी, चाहि चितवन लागी कोरक चमेली के। मजु छवि छिति - तल पर छहरान लागी, छूअन छवान लागे केस अलवेली के ॥१॥ कर पग जल - जात सरिस भये हैं मंजु गति में भई है सोभा सरस - नदन की ।