पृष्ठ:रसकलस.djvu/३७६

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१२७ नायिका के भेद एरी बीर 'हरिऔध' निटप अधीर कियो पीर उर आनत न लाख लरजन की। भोरी बनी विपुल बिथोरी बिस बोरी बनी जरो री निगोरी ऐसी लाज गुरजन की ।। १ ।। वारि के भरेहूँ तोख लहत न कैसहूँ हैं हंसिबो न जाने ऐसी महत - उदासी हैं। लोक-लाजहूँ ते कान राखत कछू ना कवौ गाज के परे हूँ तेरी पूरन - उपासी हैं। 'हरिऔध' औरन की चाह सपने हूँ नाहि तेरे प्रेम - वृंद ही की अनुदित आसी हैं । उघरी ए अखियाँ हमारी ऐन - चातको सी एरे घनस्याम तेरे रूप - रस प्यासी हैं ॥२॥ सवैया- बावरो सो मन मेरो भयो रहै भूलि न भावत भौन बसेरो। पीर सी होति रहै हियरे दुख पावत पातकी - प्रान घनेरो। क्यो हूँ नहीं 'हरिऔध' कहूँ लगै ऊवत है जियरो वहुतेरो। एरी न जानत मो पै कहा कियो पीतम मेरी परोसिनी केरो ॥शा बीर अधीर भई तो कहा परी पीर भरी छतिया अब चॉपनी । प्रीति रती न जा 'हरिऔध' मैं ताकी प्रतीति करी बनी पापिनी। या अपकीरति की बतिया निज हाथन मोहिँ परी सखि थापनी। मो पतिआन पै गाज परै पति - पान के हाथ गई पति आपनी ||४|| - अनूढ़ा जो अविवाहिता स्त्री पुरुष से गुप्त प्रीति करती है उसे अनूढ़ा कहते है।