सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रसकलस.djvu/३८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रसकलस मरो मुरझायो मन मारिये कहाँ लौँ कहो कठिन हिये पै कौ लौ पाहन बसाइये । कोटि काम हूँ ते अभिराम स्याम प्यारे-काज कलपि कलपि को लौं बासर बिताइये । 'हरिऔध' अनुछन ऑखिन को तारो हुतो जाके बिना एक पल हूँ ना कल पाइये । उधो वाही लालन के सुललित पायन की धूरि हूँ मिलै ना जो लै लोचन लगाइये ॥२॥ सवैया- क्यों नहीं सहि जाहिं अरी उर मे उपजे दुख-पुज-अपार ए। दाह दुगृनिय होत उसासन प्रान रहे 'हरिऔध' अधार ए। हाय । न सीतल होत छनौ कवहूँ इन नैनन के जल-धार ए। डारत छार किये हियरा विरहागि के बीर अधूम-अँगार ए ।। ३ ।। पीर पराई पछानत हो परतीत हूँ प्यारे प्रसंसन जोग है। भाप हूँ को है अभाव नहीं कमनीय-सुभाव हूँ को सहयोग है। 'हरिऔध' न जानि पो परदेस में क्यों विसयो मो वियोग है। भाखिये भूल तिहारी कहा मनभावते भाग ही को सब भोग है ॥ ४॥ ओट भये हूँ तिहारी बड़ी अखियान ते होत रहे विपरीत । माधुरी मंजुल - वैनन की 'हरिऔध' अजों हमरो मन जीते। ढोलत वावरी सी वन - वीथिन बूझति ना कछु नीत अनीते । ना विसर वह सूरत - प्यारी बिसूरत ही निसि वासर बीते ।।५।। खंडिता अन्य-नारी-सभोग-चिद् चिदिन प्रातरागत नायक दर्शन से कुपिता सहिता कहलाती है।