पृष्ठ:रसकलस.djvu/३९०

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१४३ नायिका के भेद मुख ते कछू कहति नहीं कितनो करति सकोच । लरिकाई छूटी नहीं कहा लरे को सोच ।।२॥ सरस बनावहु जलद-तन चलि करि रस-मय-केलि । अहै कलह - रवि - कर तई दुलही - उलही - वेलि ॥ ३ ॥ मध्या दोहा- पिय सों लरि लरि तू रही तव तो बहु इतरात । अब लोयन को जल बनो तेरो कलह दिखात ।। १ ।। • सोचि सोचि अपनी दसा कत सकुचति सुकुमारि । कलह - कालिमा क्यों धुलति जो न होत हग - वारि ॥२॥ प्रौढ़ा कवित्त- मान के किये ते मान रहत कहाँ धौं कैसे मेरे जान मानही की बातें हैं अमान की। मन मैं मसूसि महा - मुरमि रही हौ बीर नेक - सुधि मोको ना रही है खान - पान की। हाय ! 'हरिऔध' हूँ सो हियरो हरन - वारो रूसि गयो मोसों जरो वानि अपमान की। छवि पै लुभाई को लगैहै छतिया सो मोहि पान को करहै सुधा मंजु - वतियान की ॥१॥ दोहा- बरवस करुये बयन कहि मो सरवस हरि लीन । कैसे नीरस नहिं वनति रसना रस सो हीन ।।२।। परकीया दोहा- टूटि सलिल - भाजन गयो छूटि न पायो पंक । कलह भयो तासों अली जा हित सह्यो कलंक ॥१॥ -- - 12.4