पृष्ठ:रसकलस.djvu/४१२

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नायक. गाम्भीर्य भय, शोक, क्रोध और हर्ष आदि के कारण उपस्थित होने पर भी निर्विकार रहना गाम्भीर्य कहलाता है । उदाहरण कवित्त- उदधि - गभीर - उर छुभित कवौ ना होत वामै छवि अछवि समान ही है छहरति । सकल - बिकार - हीन - बहु-विध-भावन मैं छोभमयी - भावना छनेक नॉहिं ठहरति । 'हरिऔध' मानस विमोहित तहाँ ना होत जहाँ महा - मोह की पताका-मजु फहरति । चित मॉहि नाना - लालसान ते ललित-भूत लोभनीय - लोभ की लहर नाहिं लहरति ॥१॥ दोहा- कामिनि की कमनीयता कामुक करति न ताहि । जासु कामना मैं बसति काम - बासना नाहिं ॥२॥ सदा एक - रस रहत बुध भये विवेक उदोत । सुख मैं सुखित वनत नहीं दुख मैं दुखित न होत ।। ३ ।। सुरपति - अनुपम-पद लहे होत न बिपुल - निहाल । निरखि उठत करवाल हूँ बनत न लोचन लाल ॥ ४ ॥ हारि परे हूँ हरन हित पर - धन हेरत है न । बहु - रिस हूँ मैं नहिं कहत वियुध अनसे बैन ।।५।। वेधत नाहि गभीर - उर मारि कुसुम - सर मैन । चोरि सकति चिता नहीं वाके चित को चैन ।। ६ ।।