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पृष्ठ:रसकलस.djvu/४१६

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१६६ नायक बेस बसनादि मॉहिं बिलसित माधुरी है बिबिध - बिलास मैं विकास दरसत है। रमनीय - तन कामिनीन - मन मोहत है कमनीय - कांति देखि काम तरसत है। 'हरिऔध' मुख मनोहरता - निकेतन है सुधा के समान मंजु-हास सरसत है । भाव - भरे - कोयन मैं लसति, ललामता है बड़े बड़े लोयन ते रस वरसत है॥२॥ सवैया- सुंदर - वेस सुहावन-चानक पाग - सजी-सित सीस पै सोइति । मंजु बनी अलकावलि कॉर्हि न कौन सी कामिनी है कि जोहति । दीठि के तारन मैं कमनीयता है छबि की मुकुतावलि पोहति । बैन की माधुरी है चित चोरति नैन की माधुरी है मन मोहति ॥३|| दोहा- मंद मंद हँसि मधुर बनि मोहत है मन मोर । काको चित चोरत नहीं चितवन ते चित - चोर ॥४॥ कस मैं रहत न मन निरखि कारो कुंचित - केस । काको वस मैं नहिं करत बहु - सुहावनो - बेस ||५|| मो मन मोहत बर - वसन वदन - मंजु-अवदात । लोनो - नयन ललित - बयन परम - सलोनो गात ॥६॥ मोहन के ही कथन मैं है मोहन की बान । काके मधुर-बयन सुने कान करत मधु - पान ||७|| मुरली - बादन मैं करत काको वदन कमाल। काकी वानक है बनी अंक - लसे बन • माल IIEIR