पृष्ठ:रसकलस.djvu/४१८

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१७१ नायक 'हरिऔध' जीव यदि जानतो अभेद भेद कैसे तो बिभेद के प्रवाह मॉहि बहतो। बुरी छूत-छात जो न छाती पै सवार होति कैसे तो अछूत को अछूत कोऊ कहतो ।।३।। कौन है परायो कौन आपनो विचारै किन ऊँच नीच मानि कत पाप मैं पगत है। मिलि मिलि सवसो सुखित कत होत नॉहिँ क्यों न सुख सबको बिलोकि उमगत है । 'हरिऔध' भागो भागो काहू सो फिरत कत या जग मैं कौन तेरो सगो ना लगत है। तन तन माहि जगमगत रतन एक जन जन मॉहि एक जोत ही जगत है ॥४॥ सवैया- मानवता तिनमैं है कहा जे कुरंगन वेधि बिनोद हैं पावत । ते 'हरिऔध' कहाँ हैं दयालु जे वान बिहगन पै हैं चलावत । है तिनको उर मंजु कहाँ जे अहै मधुपावलि को कलपावत । है तिनमैं कहॉ कोमलता कुसुमालि को धूल मैं जे हैं मिलावत ॥५॥ दोहा- रवि ससि काको सग कहहिं काको समझहि आन । सबको गिनत समान हैं समता- ममतावान ॥६॥ को वैरी है कौन है दान - वीर को बीर । सबको वितरत है सुरभि बहि बहि सरस समीर ।।७।। बिना कहे दानी करत दया दान हरि पीर । विन जॉचे सरिसरन मैं नीरद बरसत नीर ॥८॥