पृष्ठ:रसकलस.djvu/४२३

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रसकलस १७६ सवैया- अकुलाये वनै न विलोकत हूँ कत लोक की लीकन डॉकती हो ! अनजान वनी सी कहा जल पै नख ते अखरान को ऑकती हो। 'हरिऔध' अबूझ अजौं है कहा बिन बूझे झरोखन झाँकती हो। तमनो तुम कौन को आन-भरी तिरछी अखियान ते ताकती हो ।। १ ।। २--उपपति परदारानुरागो पुरुष को उपपति कहते हैं। इसके दो भेद हैं-वचन-चतुर और क्रियाचतुर । सवैया-- मैन जगावती हैं तन मैं अपने बस मैं मनहूँ करि राखें । बोले विना हूँ भुरावति सी बतियानहूँ भाव-भरी बहु भाखें । नेमुक मैनन ही 'हरिऔध' को पूरी करें कितनी अभिलाखें । ढारहिं धार सुधा की हिये बहु - प्यार भरी परतीन की ऑखें ॥१॥ वग्या- चोरति करि चतुरैया चित को चैन । ताकति तरुन तिरियवा तिरछे नैन ॥२॥ वचन-चतुर वचन चातुरो द्वारा पर-स्त्री-सबो प्रोति-कार्य-साधन-तत्पर पुरुष को वचन-चतुर कहते हैं। वित्त-- मोती- माल गन - तोर - बासी मन मेरो कुच सभु को उपासी ताप रोस धारियत है। नानि नानि घाँकी दोऊ भीहन - कमानन विग्बीले नन - यानन माँ वेधि दारियत है।