सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रसकलस.djvu/४४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२६६ उद्दीपन-विभाव चारु - चंद की चाँदनी बिलसी भू-तल मॉहि । सुधा • धार घावति अहै कैधो बसुधा काहिं ॥२॥ काको है सुख होत नहिँ काहि न होत हुलास ।' लखे चाँदनी अक मैं गुल चाँदनी - बिलास ।। ३ ।। के छिटकी है चाँदनी लहे समय अनुकूल । राका - रजनी को अहै कैधों कांत • दुकूल ।। ४ ।। किधौं बिछी है चाँदनी किधों प्रकृति को हास । किधौं खिली है चाँदनी कैधों चंद - बिकास ॥५॥ पट् ऋतु वसंत कवित्त- पादप को पुंज पूरे गयो परे - पातन ते पाटल प्रसून हूँ पगगन पगंत है। कुहू कुहू क्वैचिया कदंबन पै कूकै लगी कुंज कुंज काम की कला हूँ प्रगटंत है। एहो 'हरिऔध' कुंद कंज कचनारन मैं वगर बजारन बिनोद बगरंत है। ठौर ठौर मौरन लग्यो है भौंर - मौर - वारो बागन मैं बौर • वारो वगो बसंत है ॥१॥ नये - नये - कोपल मैं मंजरी लसी है मंजु न्यारी ही भई है छदा दिपत-दिगंत की। चहूँ ओर चंचरीक - पटली करति गान आमा भई गगन अनोखे निसिकंत की। 'हरिऔध' छिने पर छाई है छगूनी छटा चारों ओर सुछवि बनी है छबिवंत की।