पृष्ठ:रसकलस.djvu/४४८

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२०१ उद्दीपन विभाव एरी वन बागन मैं बगरयो वसंत कैधो पंचवान खेलत सिकार बिरहीन को ॥ ५॥ काढ़ि लैहै क्वैलिया करेजो कूकि कुंजन मे बावरी बने है मौरि आम - अमराई मैं। गुजि गूजि भौंरन की भीर हूँ अधीर कैहै पीर हूँ उठेगी पीरे - पात की पराई मैं । एहो 'हरिऔध' मेरे हिय ना हुलास रहै बारिज- विकास हेरे पास की तराई मैं। अंतक लौं अंत ए करेंगे काम - तंत - वारे कत जो न आयो या वसंत की अवाई मै॥६॥ मोरि मान सकल गुमान अभिभान हूँ को मरदि गयो है मेरे मन हूँ मलीन को । चूर चूर करिकै चपल - चित चैन हूँ को चोरि लै गयो है चाव कुसुम-कलीन का । प्रीतम हमारे 'हरिऔध' प्रान - प्यारे बिना करिकै उजार मंजु केलि की थलीन को। पारिकै अनंत - सोक - सागर में अंत आली मारिकै चल्यो है रो बसंत विरहीन को ।। ७ ।। सवैया- कै कुसुमावलि है बिकसी अथवा कुसुमाकरता उमही है। पा मलयानिल - मोहकता मलयाचल सी बनी मंजु मही है। नंदन के बन सी कमनीयता पादप - पुंज मैं पूरि रही है। चैत सुधाकर के कर सों कढ़ि चारु - सुधा वसुधा पै वही है ॥८॥