पृष्ठ:रसकलस.djvu/४४९

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रसकलस २० फूलि के फूलन मैं तन को तरु - किंसुक को तनिको लरजै ना। आम हूँ वौरि के बाग में बूझत बौरी बनावन मैं हरजै ना। Dजिबो त्यागि कै भंग न ताइवे की 'हरिऔध' रखै गरज ना। कूकि कै काढत प्रान क्यों कोऊ कसाइनी क्वैलिया को बरजै ना ॥४॥ दोहा- कुसुमित करि उपवन बिपिन बनि बनि बहु छबिवंत । बरबस लोयन मैं बसत बिलसत - सरस - बसंत ॥१०॥ बसि बसि जन - लोयनन मैं ललकित-चित हरि लेति । सेमल - सुमन - ललामता लालायित करि देति ॥११॥ काको मन मोहत नहीं कासों लहत न प्यार । चैत - सित - सिता मैं बिलसि सेत - सुमन - कचनार ॥१२॥ को नहिं ललकत बहु - लसित हेरि पलासन - पाँति । कौन लालसा कुसुम - कुल - लाली लखि न ललाति ॥१३॥ आकर होतो कुसुम को जो कुसुमाकर नॉहिं । कैसे सुंदर - कुसुम - सर मिलत कुसुम - सर काँहि ॥१४॥ कैसे बनि विकसित - बिपुल बिकसत सुमन - अनंत । कैसे रस • बरसत रहत सरसत जो न बसंत ॥१५॥ ग्रीष्म कवित्त- सूख्यो कठ ताल साथ रसना दहन लागी पूखन विखै मैं ओठ अजहूँ न डोले हैं। वानी जू सिधानी त्रास मानि बहु ताप केरो आतप - प्रताप के न वैन जऊ बोले हैं। 'हरिऔध' वापुरो कहै कछु कैसे कहै तन ते विचार के किये ही कढ़े सोले हैं।