पृष्ठ:रसकलस.djvu/४५०

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उद्दीपन-विभाव दावा किये उर मैं निदाघ - दाघ ऑकन कौ अनुमान - पग हूँ मैं परत फफोले है ।। १ ।। तजिकै तमोल तिल तेल तहखानन को तरुनी तियान ते बिदूरता गहत है। बरफ बनाई वारुनी ते ह्र विरत बीर व्यजन वयार ते विनोद न लहत है। 'हरिऔध' सीरे - सीरे व्यंजन बिहाय सारे । वसन - विभूखनादि हूँ को ना चहत है। जोर भये जगत मैं जरत - जलाकन के जीवन को जीवन मैं जीवन रहत है ।। २ ।। लपट औ बिदहत लूकन को कावा होत वायु दहि दावा होत दिनकर • चंड ते । "हरिऔध' अगनित - आयत अलावा होत रज - कन लावा होत तपन - अखंड ते । दिसि दिसि दगधित - धूरन को धावा होत ग्रीखम - छालावा होत दीधित - उदंड ते । जगत पजावा होत तीन - लोक आवा होत भूमि तपि तावा होत आतप - प्रचंड ते ॥ ३ ॥ कहा इत ठाढ़ी कर लखै कि न कैसो दव देहिन दिसान को दहत दरसत है। तरुन के पातन को तन तचि कारो भयो तोय तपि ताप सो तपन परसत है। 'हरिऔध' गिरिन को गात गरमानो घनो जरि जरि रज को समूह झरसत है ।