पृष्ठ:रसकलस.djvu/४५१

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रसकलस २०४ भागि चलु एरी भौन मॉहि भोर ही ते आज आतप अगार ते अगार बरसत है।॥४॥ अमित - उमग सों बिहडित है बार बार ठडता अठडता भई है खड खड की । अड बड बॉकी बरिवडता हूँ होन लागी बीर घनसार खड हूँ से बरिवड की। ग्रीखम - प्रचड की प्रचडता मै 'हरिऔध' खडित उदंडता भई है ब्रह्मड की । दडहिं उदड ह अखड - महि - मडल को दावा - दड - मडित - मरीचे मारतड की ।।५।। आतप मैं पूरबन की प्रखर मरीचिन ते थर थर रूखन की पाँति हूँ कॅपति है। जीवन की भाखै कौन जीवन बिना ह जरि रज की जमाति नाम - जीवन जपति है। 'हरिऔध' भभरि भभूकन औ लूकन ते छायावान - कुजन मैं छाया हूँ छपति है। जोम ते जलाकन के जगत पजावा भयो भौन भये आवा भूमि तावा सी तपति है ।। ६ ।। सूखे जात तपरितु त्रास ते सरित सर कूपन श्राप दुरि ताप ते वचत है। पानिप - बिहीनता बिलोकि वारि-वारन की वारिधि के पेट मॉहिं पानी ना पचत है। 'हरिऔध' भीखनता हेरिकै भभूकन की भूरि - भय - अभिभूत भूतल जॅचत है। . मैं