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पृष्ठ:रसकलस.djvu/४५७

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रसकलस २१० sho नीर-वारे कारे कारे घन की निकाई नसी नीलिमा अनत - नभ - मडल की नीकी है। केका - रव केकिन - कब ते अनाकुल वहु सोभा हस - अवली ते अवनी की है। 'हरिऔध' घोर अंधकार हूँ न दीखै कहूँ आभा चहूँ ओर चद - वारी रजनी की है। चपलाई चपला की अब ना लखाई परै छिति पर छाई चारुताई चाँदनी की है ॥ ३ ॥ विकसित - वारिज - बरुथ में बढ़ी है बिभा छबि अधिकाई भूरि - भुंग - लपटान की। घेरि घेरि घूमत दिखात हैं न कारे - धन घरी घरी होति नॉहिं घहर घटान की। 'हरिऔध' अनुपम - सरद - अवाई देखि आभा भई और आज ऑगन अटान की। छन छन चॉदनी ते बनति छबीली छिति छूटे चद • मंडल ते छहर छटान की ।।४।। बिमल - विकास ते गगन विकसित भयो परम - प्रकास - पुंज पसयो धरा पै है। दोपति-दुगूनी सो दिखाति है दिसा हूँ दिव्य राजत रजत द्रुम - दलन - प्रभा पै है। 'हरिऔध' विपुल-विकासिनी-विभा की बात पूनों की विभावरी की भाखी जात कापै है। छोर-धार जैसी चारु - चॉदनी चहूँघा लसै त्रवत सुधा सो आज चंद वसुधा पै है ॥ ५॥