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पृष्ठ:रसकलस.djvu/४५९

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रसकलस २१२ तू। हित तू हमारो नाथ कीनो ना हिमत माँहि कैसहूँ सिसिर मैं न मानस सम्हारथो तू । आवन को तंत तेरो भयो या बसंत मॉहिं मेरो जिय ग्रीखम - जालकन में जारयो 'हरिऔध' का भो जो न पावस-प्रताप माँहिं मेरे तन - तापन को तामस निवारथो तू । जरद भई हूँ मारी करद करेजे काम कैसा मेरो दरद सरद से बिसारथो तू ।।६।। सवैया- मूरतिमान कै मोद लसै कै विनोद - भरो रजनी - मुख राजै । भाग-भरी जग की जननी के सु-भाल को कै यह भूखन भ्राजै । कै 'हरिऔध' सतोगुन की यह सीतलता भरी सूरति छाजे । पारद-पुज कै रूप धरे फवै के नभ सारद - चद बिराजै ॥१०॥ नव-नीलिमा या नभ की हमरो यह भाव-भरो मन वेधत है। वहि वासमयी यह सीरी- वयार बिनोदन हूँ को बगेदत है। 'हरिऔध' विना सब सारद - सुदर-साज करेजो कुरेदत है । छुटै छोभ हूँ ना रतिया को छनौ छतियाको छपाकर छेदत है ।।११।। दोहा- सारद - ससि मोहत गगन बरसत सुरस - अथोर । दूनी भू - श्राभा भई छई छटा चहुँ ओर ।।१२।। और आभा नभ वसी विभा लसी ससि मॉहि। वसुधा भयी सुधामयी तारे तरनि लखाहिँ ॥१३॥ हेमन्त कवित्त- तीखी-जोति जाल हूँ मैं जरत - मसाल हूँ मैं जगी ज्वालमाल हूँ मैं लपट्यो लसंत है । -