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पृष्ठ:रसकलस.djvu/४६०

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२१३ उद्दीपन-विभाद कूलन कछार हूँ मैं सरित सेवार हूँ मैं बन मैं बयार हूँ मैं बहु विहरंत है । 'हरिऔध' व्योम हूँ मैं तारन के तोम हूँ मैं सूरज मैं सोम हूँ मै दरथो सतत है। हसन-अहार हूँ मैं हिम के पहार हूँ मैं हीरा हीर-हार हूँ मै राजत हेमंतः है ||१|| पोर पोर ऑगुरी की बारि ते गरन लागी सीकर मलीन या दिगंतन कर लगो। कोमल मरीचें है गई हैं मारतंड हूँ की आतप में प्रानिन को प्रेम हूँ अरै लगो। 'हरिऔध' भू पर लखात है हेमंत छायो दिन दिन बासर को गात हूँ गरे लगो। या तन को सीरी-पौन परसे कसाला होत पादप के पातन पै पाला हूँ परै लगो ॥२॥ . बदन दुराये ही हरत रैन मैं मयंक त्रासै ते समीर बीर सरद भयो सो है। भू तजि लखात नम-जात बारि सीकर है गात सेत गगन गिरीन है गयो सो है ।। 'हरिऔध' महा उतपात ते हेमंत ही के धूसरित वरन दिगंतन लयो सो है। दबक्यो दिवाकर दिखात अति भीत ही ते मीत ही ते संकुचित बासर भयो सो है 113}} सिसकत रहत तमीपति रजनि माँहि ‘तमरिपु हूँ को होत कढ़त कसाला है।