पृष्ठ:रसकलस.djvu/४६१

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उसकलस २१४ सी सी करि घरी घरी घूमत चहूघा रहै सीरी-पौन हूँ को गरमी को परथो लाला है। 'हरिऔध' आकुल है अरो खरो रूख हूँ है ठरो सीत-भरो वाको ठौर हूँ को ठाला है। बूझि पर बाला हिम-गाला सी दुसाला मॉर्हि । पाये सीतकाल ज्वालमाला भई पाला है ॥४॥ दीख सीकरन माँहि सपरि गयो सो ससी दिवानाथ लका ओर आकुल अरे अहैं । सीरी सॉस भरत अधीर ह समीरन हूँ सरित सरोवर हूँ हिम मैं गरे अहैं। 'हरिऔध' पावक हूँ पाहन मैं पैठ्यो जात दलन दुराये गात पादप खरे अहैं। पाला नॉहि परथा सीत प्रबल प्रमाद ही ते प्रान बिन तारे आइ पातन परे अहैं ।।५।। सीतल हिमाचल-दरी सी सब साला लगें सगिनी प्रतीति होति सुधा सीरे-पक की । माला लगै मोती की हिमोपल-जमाति जैसी कामिनी जनाति है विभूति हिम-अंक की । 'हरिऔध' हेरत हिमंत करतूति ऐसी तुहिन-सनी सी है सुपेती परजक की। पाला लगै पावक दुसाला लगै कंज-पात रवि की मरीचि लागें किरने मयंक की ॥६॥ पाला को कसाला ताहि कपित न करि पैहैं जाके कंठ मॉहि मृग नाभि मजु-माला है।